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जो प्रेम नहीं कर सकता वो कुछ नहीं कर सकता!

जो प्रेम नहीं कर सकता वो कुछ नहीं कर सकता! ये बात मैं बहुत विश्वास से कह सकता हूँ, बल्कि उतने ही विश्वास से कह सकता हूँ जितने विश्वास से एक कम्पनी अपने टैगलाइन पर विश्वास करती है.....कि "पहले इस्तेमाल करें फिर विश्वास करें!" खैर! मज़ाक की बात से इतर अब आते हैं मुद्दे की बात पर। तो मुद्दे की बात है कि पिछले कई वर्षों से देखता आ रहा हूँ कि विश्व ने बहुत प्रगति की है, भारत भी प्रगतिशील देश की फेहरिस्त में कहीं पीछे नहीं है।

चित्र साभार : आयुषी तथा धर्मेश 

पर प्रगति और प्रेम जब दोनों का सामंजस्य होता है तो किसी भी देश या समाज को उसकी उपलब्धि दिखानी या गिनानी नहीं पड़ती बल्कि प्रेम तो इतना निश्छल और निष्कपट होता है कि वो खुद ब खुद सबकी नजरों में आ जाता है। उसके लिए कोई अन्य प्रयास करने की ज़रूरत नहीं है। तो समस्या कहाँ है? आखिर कैसे आज हमारे देश, हमारे समाज में प्रेम पर एक अनदेखा प्रतिबंध लगा है? क्या हमारे देश में हमेशा से ऐसा होता आया था? अगर हाँ तो परमसत्ता परमात्मा की अनेकों गाथाओं में प्रेम को एक विशेष स्थान क्यों मिला? 


आज हम उस दौर में जी रहे हैं जहाँ हमारे शास्त्रों में निहित सभी मुक्त विचारों और विवेचनाओं को हम पढ़ते या सुनते तो हैं पर अंत में जो हाँसिल होता है वो ये सर्वमान्य मत कि "सब प्रभु की लीला है" ......अर्थात मन में लड्डू फूटने दीजिये, ज़ाहिर मत कीजियेगा क्योंकि तथाकथित समाज को यह पसंद नहीं कि जो कुछ प्रभु ने किया वो आप करें, क्योंकि आप प्रभु नहीं हैं तो कृपा करके प्रभु होने की चेष्टा ना करें.......क्यों? आखिर क्या भेद है प्रभु में और हम में? यदि प्रभु के होने का प्रमाण -शास्त्र हैं तो मेरे होने का प्रमाण प्रभु नहीं हैं? क्या अद्वैत मत की प्रसिद्धि भारतवर्ष की कीर्ति को नया कीर्तिमान नहीं देती? आप आमतौर पर जिस मूरत को प्रभु की मूरत मान बैठे हैं वो वहाँ विराजमान ही नहीं है, और वो जहाँ विराजमान है वहाँ आप उसे देख नहीं सकते, क्योंकि सैकड़ों वर्षों से आपकी बुद्धि को तथाकथित बुद्धिमानों ने और आपके तथाकथित साधू संतों ने भ्रष्ट कर रखा है। जिन्हें खुद की तृप्ति का मार्ग तो पता नहीं है और आपकी तृप्ति के लिए वे आपसे ज़्यादा परेशान हैं। मैं तो कहता हूँ कि अद्वैत ही परमसत्य है, क्योंकि इससे और अधिक प्रभु से निकटता क्या ही हो सकती है कि जहाँ हममें और उसमें कोई भेद ही ना रह जाए। हम, हम ना रह जाएं, वो हमारे वजूद को कुछ इस कदर छा ले। हमें इस कदर अपना ले। क्या ऐसी ही कुछ चेष्टा हम अक्सर तब नहीं करते जब हम किसी से प्यार करते हैं? तो क्या प्यार को प्रभु की प्राप्ति का मार्ग या उससे जुड़ाव की भाषा नहीं कह सकते? प्रेम निश्छल ,निष्कपट होता है ठीक वैसे ही जैसे कोई मधुर संगीत.....जैसे किसी वाद्ययंत्र के तार यदि किसी कुशल संगीतकार के हाथ लग जाएं तो एक मधुर संगीत की उत्पति होती है ठीक वैसे ही किसी निष्कपट मनुष्य की अतृप्त वासना के तार झंकृति होकर प्रेम का संगीत प्रस्तुत करते हैं। संगीत की एक खूबी है कि वह भाषाओं और सभ्यताओं का मोहताज नहीं है यदि वह मधुर है तो उसकी मधुरता स्वतः ही सार्वभौमिक होगी ठीक वैसे ही जैसे प्रेम सार्वभौमिक है, हर युग में प्रेम की प्रासंगिक ही रहा है क्योंकि वह मधुर है, निश्छल है, निष्कपट है......और जहाँ छल है, कपट है वहाँ प्रेम का कोई स्थान नहीं। अपेक्षा लालच को जन्म देती है प्रेम को नहीं। इसीलिए इस देश में जहाँ संसाधनों का आभाव और ग़रीबी का प्रबल प्रभाव सदियों से चला आ रहा है वहाँ हम प्रेम की कल्पना बिना किसी अपेक्षा के कर ही नहीं सकते इसीलिए हम ये भूल गए हैं कि अपेक्षाओं के परे जाना ही प्रेम की बुनियाद का रखा जाना है। अगर ऐसा नहीं है तो रानी ने मीरा अपेक्षाओं के परे जा कर कृष्ण से प्रेम ना किया होता तो आज हम उसे प्रेम पुजारन मीराबाई के तौर पर ना जान पा रहे होते ज़रा सोंचिये की किसी का प्रेम इतना अपेक्षा विहीन, इतना निश्छल हो कि उसकी प्रसिद्धि सदियों तक ना मिटे तो कैसा वो सच्चा प्रेम रहा होगा और कैसी वो सच्ची पुजारन? पर फिर भी जहाँ एक ओर इस देश ने अपने प्रेमी स्वभाव के इतने सारे महान उदाहरण पेश किए हों , वहीं आज इस देश में नफरत की तपिश का ज़्यादा और प्रेम की तरलता का कम हो जाना मीरा के श्राप जैसा प्रतीत होता है जिसने इस देश के खिन्न हृदय और जड़ स्वभाव के कारण स्थान लिया है, इसीलिए अगर इस देश को अपना खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त करना है तो इसे प्रेम करना सीखना होगा, क्योंकि जो प्रेम नहीं कर सकता वो कुछ नहीं कर सकता......


लेखक: धर्मेश कुमार रानू

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