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भारत के खिलाड़ियों में क्षमता की कमी नहीं, फिर भी उतने मेडल्स क्यों नहीं?

यह हर एक भारतीय का यक्ष प्रश्न होना चाहिए, हर एक आम इंसान को इस विषय पर चिंतन करना चाहिए। जिन्हें खेल में रूचि ना हो आज का यह लेख ख़ास तौर पर उन्हीं के लिए है, तो बंधू! जैसे आपकी रूचि व्यापार, ट्रेडिंग, सिनेमा, न्यूज़ आदि में होती है वैसे ही बहुत लोगों को इस देश में खेलों से प्यार है। इस देश में क्रिकेट मैचेज को तो पर्व की तरह देखा जाता है, और जब जब हमारा देश कोई क्रिकेट मैच जीतता है तब तब हर भारतीय के लिए वह बहुत गर्व का विषय होता है पर आखिर क्या कारण है कि बाकी के बहुतेरे बहुप्रतीक्षित, अंतर्राष्ट्रीय तौर पर प्रतिष्ठित खेलों में या स्पर्धाओं में हम एक प्रतिभागी देश के तौर पर उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते जितना अपेक्षित है। 




गौरतलब है कि इस विषय पर रूचि लेने वाले बहुत कम मीडिया प्लेटफॉर्म्स हैं जो वास्तविक स्थिति को आम जन तक पहुंचा सकें, 


हाँ इस विषय पर कुछ लेख अंतराष्ट्रीय मीडिया में ज़रूर छापे गए हैं जिन ख़बरों के कारण हर क्षेत्र में बाज़ी मारने वाले प्रतिभाशाली भारतीय नौजवानों निराशा होगी, कि उसके देश की साख पर बात आई है। 

तो आईये तथ्यात्मक तौर पर इस पूरे विषय पर चर्चा करते हैं, और समझते हैं कि आखिर क्यों भारत बहुत सारे गोल्ड मेडल्स नहीं ला पा रहा। 

इस चर्चा को भारत के जाने माने शॉट पुट खिलाड़ी, और ओलंपिक्स तथा कॉमनवेल्थ में देश का नाम रोशन कर चुके श्री ओम प्रकाश सिंह के बयानों से लिया गया है। 


खेलों का विकास, खिलाड़ियों का चयन, प्रशिक्षकों की नियुक्ति और प्रशिक्षण, ये सभी कार्य फेडरेशन के पास हैं। आज इन संघों पर गुटबाजी का बोलबाला है, क्योंकि हर कदम पर राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। फेडरेशन के पदाधिकारी राजनीतिक लोगों की इच्छा से ही कुर्सी पर काबिज होते हैं। फेडरेशन का गठन स्टेट एसोसिएशन से होता है। यही स्थिति संघ में भी है। 'खेल और खिलाड़ी' को छोड़कर बाकी सब कुछ वहां दिखता है।

कई बार ऐसे खिलाड़ी इन महासंघों में आगे आने की कोशिश करते हैं, जिन्होंने देश के लिए कुछ किया है। उन्हें कोई वोट नहीं देता। क्योंकि, सभी 'राजनीतिक' व्यवस्था के प्रभाव में रहते हैं। खेल संघों में आईएएस और आईपीएस पिकनिक के रूप में आते हैं। हॉकी खिलाड़ी परगट सिंह को कौन नहीं जानता, जब उन्होंने महासंघ के लिए कोशिश की तो बुरी तरह हार गए। जब इस तरह के एक प्रख्यात खिलाड़ी की स्थिति है, तो यह समझा जा सकता है कि महासंघ में 'राजनीतिक' व्यवस्था कैसे हावी हो गई है। गुजरात, केरल, तमिलनाडु और अन्य शहरों में 'साई' केंद्र हैं। हॉस्टल खिलाड़ियों से भरे पड़े हैं, लेकिन जब मेडल की बात आती है तो 'सूखी' लगती है, ऐसा क्यों? ओमप्रकाश यह भी सवाल उठाते हैं कि विदेशी कोच कई जगह लाए जाते हैं, जबकि उस खेल के बेहतरीन कोच हमारे देश में हैं। जान न्योछावर करने  वाले देसी कोच को मुश्किल से दस-बीस हजार रुपए दिया जाता है, जबकि विदेशी कोच को 20 हजार डॉलर मिलते हैं। यानी आज की भारतीय मुद्रा की स्थिति में 1 लाख  60हज़ार रूपये ,अगर किसी राज्य का कोच है तो उसे ड्यूटी फ्री कराई जाती है।

कई खेल संघ भी हैं, जहां एक पूर्व खिलाड़ी को कमान सौंपी जाती है जो खेल जीवन में असफल हो रहा है। अगर वह खिलाड़ी किसी महासंघ या संघ में आता है तो सबसे पहले वह बूढ़े लोगों से नाराज होने लगता है। महासंघ में गलत लोगों को आगे लाने की कोशिश हो रही है। ऐसे अधिकारी खेलों पर ध्यान देने के बजाय राजनीति की ओर बढ़ते हैं। राजनेताओं के रिश्तेदारों या रिश्तेदारों को खेल संघों में नियुक्ति दी जाती है।


कोच किसी भी खेल का स्तंभ होता है। वह एक तानाशाह होना चाहिए। एक सफल कोच के लिए यह बहुत जरूरी है। एक कोच में उच्च शैक्षणिक योग्यता, तकनीकी ज्ञान और ईमानदारी, ये तीन गुण होने चाहिए। हमारे देश में इसका उल्टा होता है। यहां ऐसे कोचों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिम्मेदारी मिलती है, जो खेल से 'खेलते' हैं। असली कोच स्थानीय स्तर पर ही रहता है। ओमप्रकाश के रूप में हॉकी कोच बलदेव सिंह को कौन नहीं जानता। उन्हें कभी भी राष्ट्रीय टीम का कोच नहीं बनाया गया। टोक्यो ओलंपिक में एकमात्र जिमनास्ट, प्रणति नायक की कोच मीनारा बेगम, जिन्होंने उन्हें 18 साल तक प्रशिक्षित किया, उन्हें ओलंपिक में नहीं भेजा गया बल्कि दूसरे कोच को भेजा गया। इस मामले में, पदक की संभावना कम हो जाती है। कोचों की नियुक्ति में बहुत भाई-भतीजावाद है। असली कोच को कभी मौका नहीं मिलता।

2021 टोक्यो ओलंपिक में पदक से चूकने वाली मीराबाई चानू ट्रेनिंग के लिए ट्रक से इम्फाल पहुंचती थीं। देश के नंबर वन रेसवॉकर संदीप पुनिया जिस उम्र में प्रशिक्षण और सुविधाओं की जरूरत थी, उस उम्र में बकरियों को चराने का अभ्यास किया करते थे। गांव के मेलों में 50-100 रुपए की कुश्ती लड़ने वाले संदीप पुनिया टोक्यो ओलंपिक खेलों में 20 किमी रेसवॉकर में अपना जलवा दिखाएंगे। परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण उन्हें बचपन से ही संघर्ष करना पड़ा था। इन खिलाड़ियों को उस दौरान साईं हॉस्टल क्यों नहीं मिल सका। वहां प्रवेश नहीं मिलने का क्या कारण था? विदेशों में सरकारी  नीति बनाती है। खिलाड़ियों को आठ से दस साल का प्रशिक्षण दिया जाता है। भारत में सारा काम खिलाड़ियों को करना होता है।

चयन प्रक्रिया में कई खामियां हैं। विशेषज्ञों को वहां जगह नहीं दी जाती है। अधिकारीयों की चलती है । IAS, IPS, राजनेता या कोई अन्य व्यक्ति जो गैर-खेल श्रेणी से आता है, वे अपनी इच्छा या सिफारिश पर गलत चयन करते हैं। इसका खामियाजा खिलाड़ी और देश दोनों को भुगतना पड़ता है। होनहार खिलाड़ियों को चयन प्रक्रिया में ही बाहर कर दिया जाता है। आए दिन ऐसी खबरें सामने आती रहती हैं। जिन खिलाड़ियों का चयन किया जाता है, उन पर गैर जरूरी शर्तें थोपने के लिए मजबूर किया जाता है। अगर कोई खिलाड़ी प्रदर्शन नहीं करता है तो उसके आगे बढ़ने का सफर इतना मुश्किल हो जाता है कि वह खिलाड़ी खुद बाहर आने की सोचने लगता है।

देश में कोचिंग का स्तर बहुत खराब है। पटियाला, बैंगलोर, गांधीनगर या कोलकाता आदि साई केंद्रों पर कोचिंग पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है। केवल वहाँ के प्रशिक्षक को ही प्रशिक्षण का ज्ञान नहीं होता है। इसका कारण यह है कि नौकरी की तलाश में अधिक उम्मीदवार डिप्लोमा या डिग्री प्राप्त करने के लिए आते हैं। उनका खेल से कोई लेना-देना नहीं था। साढ़े दस महीने का डिप्लोमा या दो साल का एमएस होता है। अगर किसी को और आगे जाना है तो अंतरराष्ट्रीय फेडरेशन से एक, दो या तीन लेवल की ट्रेनिंग लेनी होगी। कई विदेशी विश्वविद्यालय भी ऐसे पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं जिन कोर्सेज में फोकस सिर्फ थ्योरी पर होता है। व्यावहारिक जानकारी के अभाव में कोच अच्छे खिलाड़ी नहीं तैयार कर पाते हैं। 80 के दशक में SAI में 300 सहायक निदेशकों की भर्ती की गई थी। ये सभी राजनीतिक नियुक्तियां थीं। अधिकांश पदाधिकारियों का खेल से कोई लेना-देना नहीं था। बाद में वही लोग निदेशक व अन्य पदों पर बैठे। चयन प्रक्रिया और कोचों की नियुक्ति, सब उनके हाथ में आया। अब आप पदक का अंदाजा लगा सकते हैं। और आज की स्थिति पहले से  कोई कम खराब थोड़े ही है, बल्कि यह बद से बदतर ही हुई है। 


By: Dharmesh Kumar Ranu

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