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अंधराष्ट्रवाद की नुमाइश है, आप तो बस ताली-थाली बजाइए।

आठवीं के एक छात्र की जिज्ञासा, आज के दौर की राजनैतिक परिभाषा 


(लेख में आगे)

~मैने उनसे कहा कि अगर वहां कोई लड़ाई नहीं चल रही तो वो बॉर्डर क्यों है?

~अगली जय घोष से पहले ही भीड़ में से किसी उत्साही जीव ने पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे शुरू कर दिए जिसके कारण इस नारे की गूंज देखते ही देखते सारे स्टेडियम में फैल गई। 

~तो इस दौरान जब एक ओर तथा दूसरी ओर के घटना क्रम और उसका अभ्यास एक ही जैसा हो तब-तब अनुकरण भी अनुकरण ना लगते हुए एक स्तर पर एकीकरण हो जाता है।

मैं बहुत छोटा था, मेरे ख्याल से आठवीं या नवीं में था जब पहली बार वाघा बार्डर पर जाना हुआ। इससे पहले कई बार इस बॉर्डर के बारे में सुन रखा था, बॉर्डर मूवी भी देख रखी थी.....अब आप सोच रहे होंगे कि बॉर्डर मूवी और वाघा बार्डर में क्या संबंध? 

वाघा बॉर्डर पर धर्मेश- वर्ष 2012 

सही बात है! ये बात आज आप कह सकते हैं, और मैं मान भी लूंगा कि इन दोनों ही का कोई संबंध नहीं है। पर उस वक्त आठवीं में पढ़ने वाले धर्मेश को कौन बताए कि "ये कुछ और मामला है....वो कुछ और" खैर बॉर्डर मूवी के कारण मुझे एक बात तो समझ में आई, कि बॉर्डर तो वही है जहां जंगे लड़ी जा रही हों, अगर वहां कोई जंग नहीं है तो, फिर तो वो पर्यटन स्थल है, बॉर्डर नहीं, ठीक यही सवाल मेरे मन में आया मैंने ज्यों का त्यों आस पास मौजूद परिजनों अथवा रिश्तेदारों से पूछ लिया। कि "जिस बॉर्डर पर हम लोग जा रहे हैं, क्या वहां लड़ाई चल रही है?" कुछ लोग हंसे, कुछ हंसते हुए लोगों को देख कर हंसे और बाद में मेरे पूछे गए प्रश्न को दोहराने को कहा, ताकि वे फिर से हंस सकें....जिज्ञासा से भरा मैं स्वभावतः अपने प्रश्न को दोहरा गया, और तिस पर भी "बॉर्डर" फिल्म का उदाहरण देते हुए। लोग फिर से हंसे अभी तक तो मैं अचंभित था, पर अब थोड़ा क्रुद्ध भी हो गया। मैने उनसे कहा कि अगर वहां कोई लड़ाई नहीं चल रही तो वो बॉर्डर क्यों है, और फिर वो तो भारत पाकिस्तान का बॉर्डर है। लड़ाई तो चलनी ही चाहिए और लड़ाई नहीं भी चल रही तो, अगर लड़ाई चल पड़ी, फिर क्या करेंगे? कैसे निकलेंगे वहां से? 

मेरी बचकानी जिज्ञासा को देख कर एक सज्जन जो हमारी पर्यटन टोली में थे, बोले "बेटा! बॉर्डर का मतलब ये नहीं होता कि वहां हमेशा लड़ाई हो, और ये तो बाघा बॉर्डर है, यहां परेड होती है, हमारे सैनिक लड़ाई तो नहीं करते पर बिना लड़ाई किए पाकिस्तान को दिखा देते हैं कि हम लोगों में कितना दम है।" ....."बिना लड़ाई किए, वो कैसे?" मैंने पूछा.....उन्होंने कहा, चलो वो तुम खुद देख लेना।

वाघा बॉर्डर- फाइल फोटो 

जब हम लोग पहुंचे, परेड का टाइम बस हो ही चुका था, सूरज डूबने की कगार पर था, स्टेडियमनुमा माहौल था करीब 10 हज़ार से ज्यादा की भीड़ हम लोगों ने जैसे तैसे किसी ऊंचे स्थान को चुना, वहां से सामने उस पार के स्टेडियम की भी हल्की फुल्की झलक मिल रही थी। उस पार भी लोग इकट्ठा थे। जैसे इस पार स्टेडियम था वैसे ही उस पार भी, परेड शुरू हुई। भारत माता का जयघोष हुआ, हम सभी पूरे पूरे रोमांच से भर चुके थे। बचपन से लेकर आजतक भारत माता की जयकार पर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने का रिकॉर्ड बना चुका मैं आज भी यही कोशिश कर रहा था कि भीड़ में सबसे बुलंद आवाज़ मेरी ही सुनाई दे। पर स्कूल की सैकड़ों बच्चों की भीड़ और असेंबली की नीरस ऑडियंस में मैं अपने जिस जज़्बे की पीठ थपथपाता आया था, उसे तो इस दस हज़ार की उत्साही भीड़ ने पीट पीट कर किनारे कर दिया था। क्योंकि मेरी जय जयकार मुझी को सुनाई देती यही बड़ी बात थी। तो आप कल्पना कर सकते हैं कि कैसा माहौल रहा होगा, कितना जोश से और देशभक्ति से भरा माहौल। सामने सैनिक थे वो हमसे बार बार नारे लगवाए जाते, देशभक्ति गीत बजते, लोग भारत माता की जयकार लगाते, उस ओर पाकिस्तान की जयकार लगती थी, जो विरले ही सुनाई देती थी, पर जब जब सुनाई देती थी इधर से और ज़ोर से भारत माता की जयजयकार लगाई जाती थी, यह बड़ा उत्साहवर्धक था, अभी तक कोई दिक्कत नहीं थी.....

वाघा बॉर्डर की परेड का दृश्य 

किसी कारण से दो एक बार भारत की जयकारों के स्वर जब मध्यम हुए अगली जय घोष से पहले ही भीड़ में से किसी उत्साही जीव ने पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे शुरू कर दिए जिसके कारण इस नारे की गूंज देखते ही देखते सारे स्टेडियम में फैल गई। बीएसएफ के कुछ जवानों ने जो हमारे आस पास खड़े थे लोगों को ऐसा करने से रोका और भारत की जय जयकार बुलंद की इसी बीच में उधर से हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारों जैसा कुछ सुनाई दिया, शायद....ऐसा बाद में किसी पर्यटक ने बातों बातों में कहा। और इधर से पाकिस्तान के खिलाफ़ नारेबाज़ी चालू हो इस बीच स्लमडॉग का "जय हो" जो कि उस वक्त का ट्रेंडिंग गीत था वो बज उठा! थोड़ी देर सब उसी गीत पर थिरके, फिर कुछ जवानों ने भारत माता की जयकार लगवाई और परेड शुरू की गई। 

मेरे लिए ये सब बहुत अद्भुत था। मैं परेड को बहुत ध्यान से देख रहा था, एक भारतीय सेना का जवान था जिसका पद क्या होगा मुझे इस बात का बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं है। पर  वो जिस प्रकार दहाड़कर पैर पटक रहा था, मुझे पक्का यकीन था कि वो इन बाकी वालों का "बाप" रहा होगा, क्योंकि मेरे अनुभव में हमारे घरों में बाप लोग जब ऐसा करते थे, दहाड़कर पैर हाथ पटकते थे तो बाकी सब चुप होकर कोने में दुबक जाते थे। तो इस आधार पर मैंने निश्चित किया कि ये सेना का जवान ज़रूर बाप आदमी है। इतनी तेज़ दहाड़ कि जैसे उन दस हज़ार दहाड़ों को चीर कर सीधे मुझ तक पहुंच रही हो। और एक मैं कि मेरी दहाड़ मुझी तक नहीं पहुंच रही थी। मैने सोंचा वाह! आदमी हो तो ऐसा, चूंकि तब तक मैने ये निश्चित ना किया था कि जीवन में क्या करना है। पर जैसे उस पल के लिए लगा कि बस ये ही करना है। इसी तरह सैनिक बनकर दहाड़ना है। और सबको दिखा देना है कि मैं तुम्हारा बाप हूं। "शाबाश! ये हुई ना बात".....

दुश्मन पर दहाड़ते भारतीय जवान  

इतनी ही देर में उस दहाड़ के स्वर के बीच बीच में एक दहाड़ और सुनाई दी, इस बार दहाड़ इस पार से नहीं थी, थोड़ा प्रयास करके देखना चाहा तो पता चला कि ये दहाड़ उस पार के किसी बाप की थी। पर उस पार की दहाड़ इस पार तक आती तो थी पर इतनी ही जितने की तुलना में हमें इस पार की दहाड़ ज़्यादा लगे। क्योंकि उस पार की दूरी मेरी सिटिंग पोजिशन से बहुत ज्यादा थी। पर स्वभावतः मुझे इस पार की आवाज़ पर फोकस करना था क्योंकि अभी तक तो मुझे बाप आदमी अपना वाला ही लग रहा था। भाई साहब! जो हवा में पैर उठा उठा के पटकता, अपनी बाजुओं को थपथपाता उस पार की तरफ मुंह करके गरजता। बाकी के जवान उसका साथ देते और हम.....हम भी क्या खूब चिल्ला चिल्ला के उसका हौसला अफजाई करते, भारत की जयघोष करते। बड़ा मज़ा आ रहा था। धीरे धीरे परेड अपने अंतिम चरण पर पहुंची इस पार का हमारा "बाप जवान" इस पार के उस गेट के पास पहुंचा जहां इस पार का बाप मौजूद था। ये दोनों अब साथ साथ परेड करने लगे। वो उस पार पैर पटकता तो ये इस पार। अचानक हिंदुस्तान और पाकिस्तान के गेट खोल दिए गए, मुझे लगा ये क्या हुआ? कुछ गड़बड़ हुई क्या? क्योंकि इधर वाला बाप भी गुस्से में था, उधर वाला बाप भी। अचानक गेट खुले, दोनों लोग अपने अपने गेट के समानांतर परेड करने लगे, यों ऊंचे ऊंचे पैर पटकते दहाड़ते, पर इस बार ज़रा फर्क था, चूंकि गेट खुल चुके थे और अब उन दोनों के बीच ज़्यादा फासला ना था तो यह तय कर पाना मुश्किल था कि दोनों में से कौन किस पर दहाड़ की चोट ज़्यादा कर रहा है। पर मन में एक उलझन थी कि कहीं कोई लड़ाई-वड़ाई ना शुरू हो जाए, अगर ऐसा हुआ तो ये बॉर्डर असली वाला बॉर्डर बन जाएगा, मन में इस ख्याल के समांतर दूसरा ख्याल ये भी था कि हमारा वाला "बाप" तो जीतना चाहिए ही चाहिए, इसीलिए मैंने और मेरे साथ मौजूद हर किसी शख्स ने जय जयकारों से पूरे स्टेडियम को पाट दिया। उधर हमारा वाला भी क्या खूब लोहे लेता रहा। 

उस पार का पता नहीं, वहां की जनता ने क्या किया होगा, पर इतना तो तय था जयघोषों से उन्होंने अपने वाले बाप का समर्थन किया होगा ही। इस बीच देखने वाली यह बात थी कि परेड करते वक्त एक मौका ऐसा आया जब इस पार के जवान की और उस पार के जवान की चाल, पैर पटकने की गति, पैर पटकने का समय, मुड़ने से लेकर चलने ,देखने, घूमने, दहाड़ने तक सबकुछ बहुत ही समान लगने लगा, ऐसा अमूमन तभी होता है जब आपका साथ- साथ कई वर्षों का अभ्यास हो, ये बात दिल में रह गई। खूब सोचता रहा! क्योंकि ऐसा तो होगा नहीं कि भारत और पाकिस्तान एक साथ परेड का अभ्यास करते हों। पर ऐसा कैसे हो सकता है कि कुछ ही देर पर दोनों के सैनिकों में उनकी चाल और गति में, सलामी में सबमें इतनी बेहतर समानताएं? ये बात अब समझ आती है। क्योंकि अब मैं आठवीं में नहीं रहा। क्योंकि अब मेरे अनुभवों को किसी के स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं महसूस होती। क्योंकि मैं अपने आप पास घटित हो रहे राजनैतिक घटनाक्रमों से इस निष्कर्ष को बहुत आसानी से समझ सकता हूं। 

एक साथ परेड करते दोनों देशों के सैनिक, एक ही मुद्रा में 

आइए समझते हैं कैसे और कहां से आती है ये समानता की परेड? दरहसल मुझे यह भ्रम था कि शायद जो मैंने आज यहां देखा है, वो अद्भुत नज़ारा किसी ने इससे पहले कभी ना देखा होगा। पर बाद में मुझे पता लगा कि यह नज़ारा उस बॉर्डर पर हर शाम 6 बजे देखने को मिलता है। और कुछ दो दशकों में इस नज़ारे को देखने वालों की संख्या में भारी इज़ाफा हुआ है, खैर! मेरा मकसद यहां किसी दर्शक, पर्यटक अथवा सैनिक अथवा सेना का अपमान करना बिलकुल भी नहीं है। मैं इस उदाहरण से आपको अंध राष्ट्रवाद की एक बानगी पेश करना चाह रहा हूं। जोकि एक हद पर जाकर हर ओर समांतर ही नज़र आती है चाहे इस पार हो या उस पार।

तो चूंकि हम ये जान चुके हैं कि यह परेड और झंडे उतारने का कार्यक्रम हर शाम 6 बजे किया जाता है और इस बात में  भी कोई शक नहीं है कि यह एक लंबे अरसे से चला आ रहा है। तो इस दौरान जब एक ओर तथा दूसरी ओर के घटना क्रम और उसका अभ्यास एक ही जैसा हो तब-तब अनुकरण भी अनुकरण ना लगते हुए एक स्तर पर एकीकरण हो जाता है। इतने सालों के अभ्यास ने उन दोनों जवानों इस प्रकार तैयार किया है कि अब उनका यह काम उनकी दिन चर्या का ही हिस्सा है। उन्हें पता है कि उन्हें अब शाम को 6 बजे ही दहाड़ना है। फिर वापस अपने दूसरे कामों में व्यस्त हो जाना है, वे एक दूसरे को शायद ना जानते हों, जानना चाहें भी ना। वे एक दूसरे से शायद किसी अनजान जगह या अनजान देश में मिलें तो शायद एक साथ बैठकर कॉफी भी पिएं। यह बड़ा स्वाभाविक है कि उनको शाम छह बजे उनकी ड्यूटी करनी है। अपने अपने मुल्क के लोगों का हौसला बुलंद करना है और ज़्यादा से ज़्यादा पर्यटकों को आकर्षित करना है। ताकि वे आएं और हमारी सेना का दमखम देख सकें, बस! 

इतनी ही सी बात है। पर हम? हमारा क्या? हमने दोनो ही तरफ स्पर्धा देखी है। दोनों ही तरफ ऐसे नफरती लोग देखे हैं जो  दूसरे मुल्क के मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हैं। इधर से पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे तो उधर से हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे, इन नारों के बीच हममें इतनी संवेदना तो मर ही जाती है कि हम किसी की मौत की कामना कर रहे होते हैं। चाहे वो मुल्क हो या व्यक्ति, क्या फर्क पड़ता है? ज़िंदाबाद के नारों ने जिस जज़्बे के साथ हमारे अंदर किसी जिंदा इंसान को पैदा किया था मुर्दाबाद के नारों ने उसे मार दिया। कुछ इधर मारे गए तो कुछ उधर, फिर क्या फर्क पड़ता है, जंग हो या ना हो! 

क्रिकेट ग्राउंड में दिख रहे हैशटैग का मतलब आप जानते ही हैं

कुछ ऐसे ही आयोजन आजकल हम हर ओर देख रहे हैं। बाघा बॉर्डर तो फिर भी ठीक है, कम से कम दोनों तरफ के सैनिकों को उनका रूटीन काम पता है, और उसमें कोई स्पर्धा नहीं....जो दिख रही है वो स्पर्धा नहीं, अब तो वो अनुकूलता हो गई है। स्पर्धा का भाव और अनुकरण की संभवानाएं विलीन हो गई हैं। 

आज का युवा मध्यमवर्ग जो एक दूसरी ही प्रकार की परेड का हिस्सा बन रहा है 

पर आज जो पूरे देश में चल रहा है वो इतने प्रशिक्षित और अनुशासित लोग नहीं हैं। उन्हें उनकी रूटीन का भी कोई अवरोध नहीं है। उन्हें कुछ चाहिए तो बस उनके पीछे शाबाशी देने वाली भीड़। जो जय जयकार के नारों को हौले- हौले मुर्दाबाद के नारों में इस कदर बदल दे कि यह अहसास भी ना बाकी रह जाए कि ज़िंदाबाद के नारे लगाए गए हैं या मुर्दाबाद के। वहां ....उस बॉर्डर के पर्यटन में और वहां के पर्यटकों में वहां की व्यवस्था और व्यवस्थापकों के द्वारा अनुशासन कायम किया जा सकता है। पर यहां जो राष्ट्रवाद के नाम पर उद्दंड शुरू हुआ है। उसके व्यवस्थापक तो खुद जाकर सत्ता में बैठे हैं, या यूं कहें कि उन्हें सत्ता ही इस उद्दंड के नाम पर हासिल हुई है। फिर क्या पक्ष और क्या विपक्ष। सभी इस व्यवस्था के और इस पर्यटन के व्यवस्थापक ही हैं। जनता को अब बस नारे लगाना है। चाहे आवाज़ कहीं तक पहुंचे,बस ख्याल रहे! नारे ज़रूर लगते रहें! चाहे ज़िंदाबाद के नारे हों या मुर्दाबाद के.....क्योंकि अब भेद नहीं रहा उनमें।


By: Dharmesh Kumar Ranu

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