Highlights
निजीकरण व मुनाफे का काला खेल, नकली दवाईयों की लगी है सेल
फार्मा कम्पनियाँ आपको बेंच रही हैं मिलावटी दवाईयां,
66 बच्चों की कफ़ सीरप पीने से मौत के मामले ने भारत की छवि पर असर डाला
जिस एक्टिविस्ट ने सरकार को चेताया, सरकार ने उल्टा उसी पर आरोप लगाया
साल 2013 में “रैनबक्सी” (Ranbaxy) नाम की जानमानी फार्म कंपनी ने US को 500 मिलियन डॉलर की पेनल्टी दी थी और अमरीकी कोर्ट में ये माना भी था कि वो अमेरिका को कम गुणवत्ता वाली मिलावटी दवाइयां बेंच रहा थाl(Ranbaxy adulterated medicine case) और इस घटना के बाद से अमेरिका (America) में भारत (India) से जाने वाली हर दवाई पर इंस्पेक्शन(गुणवत्ता जांच) और बढ़ा दिए गया, आज US भारत से कही ज्यादा अधिक गुणवत्ता वाली दवाईयां इस्तेमाल करता है, पर अफ़सोस है कि, भारत में बन रही और अमेरिका भेजी जा रही दवाईयों की गुणवत्ता और भारत के आम लोगों के द्वारा उपयोग में लाई जा रही दवाईयों की गुणवत्ता में ज़मीन और आसमान का अंतर हैl
दोस्तों रैनबैक्सी वाले वाक्ये
के बाद अमेरिका ने अपनी ड्रग पॉलिसी में कई आमूलचूल परिवर्तन किये और कानून में कई
अहम् बदलाव भी लाये गए ताकि उनके नागरिकों की सेहत के साथ किसी भी प्रकार का कोई
जोखिम ना हो सकेl और ये
यूं ही नहीं हुआ, इसके पीछे जो नाम शामिल था वो भी भारत से था, जी हाँ!
वो नाम है "श्री दिनेश
ठाकुर" (Dinesh S Thakur) का, दिनेश ठाकुर ने उस्मान कोलेज- हैदराबाद से अपनी केमिकल इंजीनियरिंग की
डिग्री ली और फिर आगे की पढाई के लिए अमेरिका चले गए, और वहीं बस गए, पर रैनबैक्सी
के मामले में उनकी आठ साल की लड़ाई के बाद अमेरिका ने दिनेश ठाकुर को,
US की सेनेट हेल्थ कम्यूनिटी (The U.S. Senate Committee on Health) का
कंसल्टेंट बनाकर सम्मान दिया। यह कमेटी अमेरिका में पॉलिसी मेकिंग में अहम योगदान
देती है।
पर भारत ने दिनेश ठाकुर
के साथ क्या किया ये जानना भी बहुत ज़रूरी है, भारत ने दिनेश ठाकुर को अभी हाल ही
में फटकार लगाई हैl दरहसल CDSCO यानि कि Central Drugs Standard Control Organisation , जोकि भारत में दवाईयों की गुणवत्ता जांचने का काम करने
वाली सरकारी संस्था है, उसने गैम्बिया देश में हुई एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के मसले
को लेकर, दिनेश पर भारत की छवि खराब करने तक का आरोप लगाया हैl
अभी हाल ही में एक अफ्रीकी देश “गैम्बिया”(Gambia) में भारत में बनी कफ़ सीरप पीने से 66 बच्चों की मौत हो गई थी। (Gambia Cough Syurup Case) जिन दवाओं पर सवाल उठ रहे हैं, उनमें- Kofexmalin Baby Cough Syrup, Makoff Baby Cough Syrup और Magrip N Cold Syrup शामिल हैं. इस कफ सिरप को हरियाणा के सोनीपत में स्थित मेसर्स मेडेन फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड (Medin Pharmaceuticals Limited) ने बनाया है, बस इसी मुद्दे पर बात करने पर सीडीएससीओ ने जन स्वास्थ्य एक्टिविस्ट दिनेश ठाकुर और टी प्रशांत रेड्डी को नोटिस जारी कर दियाl
अब ज़रा सोंचिये! जहाँ एक ओर बड़े- बड़े देश भारत के एक्टिविस्ट्स को अपनी पॉलिसी मेकिंग (योजनाओं के निर्माण) का हिस्सा बना रहे हैं, वहीं हमारा देश इन एक्टिविस्ट्स को नोटिस जारी करके देश की छवि खराब करने का आरोप लगा रहा है l (इस मामले में दिनेश ठाकुर के ट्वीट देखें )
Thread 👇
— Dinesh S. Thakur (@d_s_thakur) October 17, 2022
Thread
As @Preddy85 and I were about to begin the session for the launch of the #truthpill this past Saturday evening, like clockwork, we received an email from the @CDSCO_INDIA_INF with a menacing notice threatening
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दिनेश ठाकुर ने अभी हाल
ही में एक बड़े चैनल को इस लम्बा इंटरव्यू दिया है और उस इंटरव्यू में भारत में बिकने वाली
बेहद हल्की गुणवत्ता की दवाईयों के बारे में कई बड़े खुलासे किये हैं, इन खुलासों
को एक आम भारतीय नागरिक के लिए जान लेना बेहद ज़रूरी हैl
दिनेश ठाकुर के मुताबिक
गैम्बिया का मामला कोई पहला मामला नहीं है, जिसके कारण भारतीय फार्मा कंपनियों की
विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा हो बल्कि इससे पहले कई बार मिलावटी दवाईयां खाने
से मरीजों को अपनी जान गंवानी पड़ी हैं, मिसाल के तौर पर वो कहते हैं कि दिसंबर 2019 को ऐसी ही एक घटना जम्मू में हुई थी, और
तब तक ये पांचवी घटना थी, जो अबतक भारत में हुई l अगर
गैम्बिया वाली घटना को मिलकर देखें तो दवाओं में मिलावट का भारत से जुड़ा हुआ ये छठा
सबसे बड़ा मामला है l और ना जाने कितने ऐसे मामले होंगे जिनके
बारे में हमें उपयुक्त जानकारी तक नहीं है l
अगर हम बात करें जम्मू
वाली घटना की, तो साल 2019 में
जम्मू के रामनगर में 11 बच्चों की मिलावटी दवाई पीने से मौत हो गई थी। बाद में जांच में पाया गया कि इन दवाईयों में 33 प्रतिशत मात्रा में एक
ऐसा केमिकल मिलाया गया था जो कभी दवाईयों में इस्तेमाल नहीं होता, वो केमिकल था “डाई
एथिलीन ग्लाइकोल” और इस जानलेवा मिलावट के लिए इस दवा को बनाने वाली कंपनी “डिजिटल
विज़न” (Digital Vision Cough Syrup Case) को ज़िम्मेदार पाया गया, यह कंपनी हिमाचल प्रदेश से संचालित होती है l और इस घटना के बाद दिनेश ठाकुर जी ने उस समय के मोदी सरकार के
स्वास्थ्य मंत्री को एक पेटीशन लिखकर जांच की और कार्यवाई की बात की थी, और यह
अवगत करवाया था कि इस प्रकार की ये पांचवी बड़ी घटना है...परन्तु इस ओर ध्यान देना
शायद “मोदी सरकार” की प्राथमिकता का हिस्सा ना हो, क्योंकि जिस प्रकार से यह घटना
छठी बार हुई उससे भारत की फार्मा कंपनियों की अन्तराष्ट्रीय साख तथा भारत की भी साख
को गहरा धक्का लगा है l पर हैरानी की बात है कि केन्द्रीय एजेंसी
ने इसके लिए भी हेल्थ एक्टिविस्ट दिनेश ठाकुर को ज़िम्मेदार ठहरा दिया है, बजाय
उनके द्वारा गुणवत्ता के क्षेत्र में सुझाए गए उपायों पर कोई ठोस कदम उठाने के l
भारत में दवाओं के
मामले गुणवत्ता के मानकों पर बात करते हुए दिनेश ठाकुर आगे कहते हैं कि
“ड्रग्स कंसल्टेटिव कमेटी ने 30 प्रतिशत तक मिलावट को छूट दे रखी है। जबकि कानूनी तौर पर यह प्रतिशत 10% से ज्यादा नहीं होना चाहिए.....सोचिए जब कानून 10% की इजाज़त देता है, सरकारी कमेटी 30 प्रतिशत तक की छूट देती है तो जो दवाई बनाने वाले लोग हैं ऐसी लचर व्यवस्था में वो 60-70 प्रतिशत की मिलावट करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।“
दिनेश जी के इस बयान पर गौर कीजिये और ज़रा अब अपने आस पास नज़र डालिए, कि अगर इन्हीं कम गुणवत्ता वाली दवाओं को आपको किसी जन औषधि परियोजना के तहत सस्ती दरों पर उपलब्ध करवाया जाए तो आश्चर्य ना करिएगा, और देश के हुक्मरानों के प्रति श्रद्धा भाव भी ना रखिएगा।
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गुणवत्ता के मानकों पर खरी नहीं उतर रहीं पर फिर भी धड़ल्ले से बिक रही हैं ये दवाईयां |
क्योंकि "मेरा
हमदम ही मेरा कातिल है"
दुनिया भर की दवाइयां
हिमाचल में ही क्यों बनती हैं? इस सवाल पर दिनेश कहते हैं कि
“क्योंकि ये एक्साइज फ्री जोन है। और हिमाचल जैसे अन्य राज्यों की सरकारें कभी भी गुणवत्ता के आंकलन पर दवाइयां बनवाने क्यों देंगी? अगर ऐसा हुआ तो ज्यादतर कंपनियां जो कम गुणवत्ता की दवाई बनाकर अकूत मुनाफा कमा रही हैं वो बंद हो जाएंगी, और उस राज्य सरकार का लाइसेंस रेवेन्यू से आने वाला मुनाफा भी बंद हो जायेगा।“
दिनेश आगे कहते हैं कि “
ऐसा नहीं है कि यहां इंस्पेक्शन नहीं होते, जो भी राज्य इंस्पेक्शन करते हैं वे रिपोर्ट पब्लिक नहीं करते”,
फिर किसी दिन उठकर किसी दिनेश ठाकुर जैसे एक्टिविस्ट को
आरटीआई दाखिल करके सवाल पूछना पड़ता है। तब जवाब में चौंकाने वाले और जानलेवा
खुलासे होते हैं। जबकि दिनेश के मुताबिक अमेरिका के प्रतिनिधि भारत आकर वहां
एक्सपोर्ट की जाने वाली दवाओं का इंस्पेक्शन करके अपने देश में उस रिपोर्ट को
पब्लिक करते हैं। ताकि उनके नागरिकों को ये पता चल सके कि उनके इस्तेमाल में आने
वाली दवाईयां इस गुणवत्ता की हैं , यह बड़ी विचित्र बात है कि वो कंपनी जो अमेरिका
को अच्छा माल बेंच रही है क्योंकि अमेरिका ने उसकी चाबी टाईट कर रखी है, वो ही कंपनी अपने देश को दवा के नाम पर रद्दी माल थमा रही
है। क्या कारण है इसका?
इसका एक ही कारण है, दवाई के कारोबार से सरकारों को होने वाला मुनाफा, लाइसेंस रेवेन्यू, भारी टैक्स, योजनाओं के ज़रिए जनता को दवा की रेवड़ी बांट कर वाहवाही
लूटना।
जबकि, अगर इन कंपनियों
की नकेल कसी जाए, या ढंग से जांच परख की जाए तो इनमें से 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा कंपनियां अनेकों मानकों पर खरी नहीं
उतरेंगी। और अगर थोड़ी और ईमानदारी बरती गई (जो कि नामुमकिन है) तो इन सभी फार्मा
कंपनियों को अपना बोरिया बिस्तर बांधना पड़ेगा। पर अफसोस....ऐसा नहीं होगा।
क्योंकि "मेरा
हमदम ही मेरा कातिल है"....इस खेल में हर कोई शामिल है।
दिनेश आगे कहते हैं कि, भारत में जेनेरिक दवाईयों (Indian Generic Medicines) का प्रचालन बहुत ज्यादा है, और जेनेरिक दवाईयां वो होती हैं जिनका पेटेंट एक्सपायर हो चुका होता है, यानि कि उस दावा को खोजने वालों का विशेषाधिकार जब उस दवा के फोर्म्युला पर समाप्त हो जाता है तब कोई भी उत्पादक उसका भारी पैमाने पर उत्पादन करने की छूट पा जाता है। और चौंकाने वाली बात तो ये है कि हमने पिछले पचास सालों में एक भी नई दवाई नहीं बनाई , आज के दौर में इसका एक बड़ा कारण वे तेज़ी से हो रहे निजीकरण को बताते हैं, मिसाल के तौर पर वे कहते हैं कि-
“इंडियन ड्रग
फार्मास्वीटिकल लिमिटेड -पब्लिक सेक्टर की एक बड़ी कंपनी हुआ करती थी, वो कहाँ गई किसी को नहीं पता, इसके
अलावा हिंदुस्तान एंटी बायोटिक लिमिटेड - पब्लिक सेक्टर, कंपनी हुआ करती थी, उसका भी आज कोई पता नहीं है”
यानि कि तेज़ी से हो रहे
निजीकरण के कारण नए प्रयोगों की बजाय निजी कम्पनियों का जोर ज्यादा से ज्यादा
उत्पादन और ज्यादा से ज्यादा मुनाफे पर ही
होता है, दिनेश कहते हैं कि इन सभी समस्याओं का निवारण हमारी पॉलिसी मेकिंग
कि क्षमता से किया जा सकता है l
पर आज के इस निजीकरण के दौर ने इस प्रक्रिया को भी “निजीकरण” की भेंट चढ़ा दिया है l
देश में बढती महंगाई और बेरोज़गारी, और साथ ही साथ घटते सरकारी संस्थानों और पदों के कारण देश का होनहार नौजवान हताशा के गहरे दलदल में डूबता जा रहा है। इन होनहारों में से जैसे तैसे कोई यदि मेधावी कुछ बड़ा मुकाम हांसिल करता है तब उसे बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियाँ विदेशों में बड़े ऑफर देकर उसकी मेधा का भरपूर इस्तेमाल करती हैं। वो होनहार इस देश की सेवा करना चाहता है, वो भी देश को बढ़ते हुए देखना चाहता है, पर कितनी ऐसी सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं हैं जो इस दौर में उसे बेहतर रोज़गार देकर पॉलिसी मेकिंग में या देश की बेहतरी में लगा सकेंगी? इसके जवाब में एक रिपोर्ट के बारे में और जान लीजिये.....केन्द्रीय गृह मंत्रालय से जारी किये गए एक आंकड़े के अनुसार पिछले तीन सालों में 3.9 लाख लोगों ने भारतीय नागरिकता छोड़ी है। ये लोग कौन हैं? शायद ये हमारे देश को रहने के लिहाज़ से, बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य और रोजगार के हिसाब से उतना ठीक ना मानते हों? खैर! आप कुछ मत कहिये, धर्म, जाति, समुदाय आदि की कथित रक्षा के नाम पर मूल मुद्दों पर चुप ही रहिये,
क्योंकि "मेरा हमदम ही मेरा कातिल है"
(Dharmesh Kumar Ranu- The LampPost)
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