भारतीय मीडिया में नेतृत्व के 90% पदों पर उच्च जाति समूहों का कब्जा
एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय मीडिया में नेतृत्व के लगभग 90% पदों पर उच्च जाति (Uppar Class) समूहों का कब्जा है, जिसमें एक भी दलित या आदिवासी भारतीय मुख्यधारा के मीडिया का नेतृत्व नहीं कर रहे हैं।Oxfam India - Newslaundry की रिपोर्ट के दूसरे संस्करण‘Who tells our stories matters: Representation of Marginalised Caste Groups in Indian Media’से पता चलता है कि प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया में लगभग 90% नेतृत्व के पदों पर सामान्य जाति समूहों का कब्जा है, जिनमें कोई अनुसूचित जाति नहीं है। (SC) या अनुसूचित जनजाति (ST) मुख्यधारा के मीडिया (Mainstream Media) आउटलेट का नेतृत्व कर रहे हैं।
दक्षिण एशिया के सबसे बड़े समाचार मीडिया फोरम द मीडिया रंबल (The Media Rumble) में जारी रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में 5 में से हर 3 लेख सामान्य जाति के लेखकों द्वारा लिखे गए हैं, जबकि हाशिए पर रहने वाली जातियां (SC, ST या OBC) केवल 1 में योगदान करती हैं। 5 लेखों में से।
समाचार पत्रों, टीवी समाचार चैनलों, समाचार वेबसाइटों और अध्ययन के तहत पत्रिकाओं में 121 न्यूज़रूम नेतृत्व पदों में से - प्रधान संपादक, प्रबंध संपादक, कार्यकारी संपादक, ब्यूरो प्रमुख, इनपुट / आउटपुट संपादक - 106 उच्च जातियों के कब्जे में हैं, पांच अन्य पिछड़े वर्गों द्वारा, और छह अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों द्वारा। चार व्यक्तियों के मामले की पहचान नहीं हो सकी है।
टीवी डिबेट्स (TV Debates) के हर चार एंकरों में से तीन (हिंदी चैनलों में कुल 40 एंकरों और अंग्रेजी चैनलों में 47 एंकरों में से) उच्च जाति के हैं। उनमें से एक भी दलित, आदिवासी या ओबीसी नहीं है "उनके 70 प्रतिशत से अधिक प्राइमटाइम डिबेट शो के लिए, समाचार चैनल उच्च जातियों के पैनलिस्टों के बहुसंख्यक वर्ग को आकर्षित करते हैं। अंग्रेजी अखबारों में सभी लेखों में 5 प्रतिशत या उससे भी कम, दलितों और आदिवासियों द्वारा लिखे गए हैं। हिंदी समाचार पत्रों का प्रदर्शन इस मामले में थोड़ा बेहतर है, यहाँ यह प्रतिशत 10 प्रतिशत के आस पास रहता है।
भारत जैसा देश जो अपनी विविधता के लिए सारी दुनिया में जाना जाता है, यहाँ इस प्रकार की प्रवित्तियां जिसके अंतर्गत अल्पसंखकों और दलित वर्ग को मुख्यधारा से दूर कर देने का यह कैसा दुष्प्रयास है? क्या इसके पीछे कोई ख़ास वजह है? .....तो इस सवाल के जवाब में आप ज़रा आज की मुख्यधारा की मिडिया की प्राथमिकताओं पर नज़र डालिए जहाँ धार्मिक उन्माद फैलाने वाली ख़बरों का बोलबाला है,
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नफरत फैलाने वाले शोज़ से मिलती है टीआरपी ,मुद्दों की बात गायब है |
जैसे जैसे इन संस्थानों में उच्च वर्ग की पैठ बढ़ी है वैसे वैसे यहाँ आम जनता, मध्यम वर्ग, दलितों, अल्पसंख्यकों के मुद्दों को नज़रंदाज़ किया जाने लगा हैl इन संस्थानों में बैठे लोग ना सिर्फ किसी वर्ग विशेष के प्रति प्रतिबद्ध नज़र आते हैं बल्कि, वे खुद "एलीट वर्ग" बन चुके हैंl और करोड़ों के पॅकेज और बोनस/डोनेशन आदि वाला यह "एलीट वर्ग" अपने मालिकों, उद्योगपति मित्रों और राजनैतिक संबंधों को ज्यादा अहमियत देते हैं बजाय भारत की आम जनता (उच्च वर्ग की हो, दलित, पिछड़ा समाज की या अल्पसंख्यक समाज की) के मुद्दों केl इसिलए इन भ्रष्ट, पक्षकारी पत्रकारों के खिलाफ एक व्यापक मुहीम का चलाया जाना बहुत आवश्यक है, इस मुहीम का नेतृत्व करने वाला कोई बाबा साहेब का सच्चा सिपाही हो, जिसमें गांधी की तासीर और बाबा साहेब का जज्बा हो, जिसमें विनोवा भावे सी दयालुता हो और लोहिया तथा कांसीराम जैसी कर्मठता होl ये तो एक मुंगेरी लाल के हसीन सपने की बात हुई, बाकी वास्तव में क्या सामाजिक न्याय की मुहीम और उस मुहीम का नेतृत्व करने के लिए भारत के बहुजन तैयार हैं? ये सोचते हुए ज़रा इस बात पर गौर करियेगा कि बहुजन नेतृत्व के पुरोधा कहे जाने वाले लोगों के विरासत धारियों ने बीते वर्षों में कितने समझौते किये हैं और कितना ज्यादा हाशिये पर ढकेल दिए गए हैं l
(Dharmesh Kumar Ranu - The LampPost)
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