पिता की राह पर सब चलते है। कब होता है, जब पिता अपने पुत्र की राह पर चले?
और मोतीलाल (Motilal Nehru) जैसा होने में खराबी भी क्या थी। उनकी वकालत की धमक लन्दन तक थी। दौलत, शोहरत, प्रोपर्टी, पहचान सब हासिल कर चुके थे। एकलौते बेटे को भी वही करना चाहिए था।
यानी पहले कॅरियर, फिर थोड़ी बहुत पोलिटीक्स।
लेकिन कैम्ब्रिज से पढ़कर आये बेटे ने शुरू से पोलिटीक्स पकड़ ली। वह भी बैरिस्टर मोतीलाल की तरह ड्राइंग रूम, मीटिंग्स, चुनावों, बयानों और डेलिगेशन की राजनीति नही.. सड़कों पर जननीति।
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पुत्र ट्रंक मे चार कपड़े डालकर देश भर में घूमता। कहीं धरना, कहीं प्रदर्शन, 100-200 लोगो की नुक्कड़ सभा, लाठी, जेल.. महीनों गायब रहता। कभी अखबारों से खबर मिलती, कभी कोई खबर न मिलती।
लेकिन दुनिया जब जवाहर (Jawaharlal Nehru) को जानने लगी, तो बाप भी जानने लगे। पुत्र कोई मामूली शख्स नही था।
कम होता है, जब पिता अपने पुत्र की राह पकड़े। मोतीलाल ने बेटे की राह पकड़ी। 1930 में दोनों एक साथ जेल गए।
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हमारे देश मे पुत्र.. बुढ़ापे में पिता को तीर्थ लेकर जाते है। सेवा करते है, थोड़ा वक्त साथ बिताते हैं। धर्म, जीवन, मूल्यों, आस्थाओं और भविष्य को लेकर बातें करते हैं।
मोती (Motilal Nehru) और जवाहर (Jawaharlal Nehru) के बीच यह सब कुछ जेल में हुआ होगा। नैनी जेल में दोनों का यह आखरी साथ था। मोती इसके बाद डेढ़ साल जिये, घर पर रहे, बीमार रहे।
और जवाहर को सरकार ने फिर जेल में डाल दिया था।
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कहते है मृत्यु पूर्व जीवन के सबसे खुशनुमा लम्हे जिंदा तस्वीरे बनकर आंखों के सामने आते हैं। मोती को अपनी अपूर्व उपलब्धियों के, महान संतोष के क्षण याद आये होंगे।
उसमे ये लम्हा रहा अवश्य होगा। जिसमे एक पिता, अपने "बड़े हो चुके बेटे" के साथ कुछ खूबसूरत महीने गुजार कर, जेल से बाहर आ रहा है।
-The LampPost
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