प्राइमिनिस्टर गांधी !!!!
why Gandhi chose Nehru over Patel?
बेलगाम एक शहर है। जहां 1924 में गांधी (Mahatma Gandhi) पहली बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। तब दक्षिण अफ्रीका से आये उन्हें दस साल हो चुके थे। देश घूम चुके थे।
उनकी खुद की एक छवि बन चुकी थी, जो कांग्रेस के ढांचे से ऊपर थी।
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और गांधी के आने के बाद ये, गांधी को स्वीकारते चले गए... या फिर कांग्रेस छोड़ते गए। जिन्ना (
Muhammad Ali Jinnah) उन्हें स्वीकार न कर सके, तो मुस्लिम लीग में चले गए।
दूसरे कुछ असहयोग आंदोलन करने से खफा थे, छोड़ गए।
कुछ आंदोलन रोकने पर खफा थे, तो छोड़ गए।
कुछ ने कांग्रेस के चुनाव न लड़ने का फैसले से नाराजगी व्यक्त की, छोड़ गए।
दरअसल मांटैस्क्यू चेम्सफोर्ड (Montagu Chelmsford) सुधारो के बाद, स्टेट्स और सेंट्रल असेम्बली बनाई जानी थी।इसमे सदस्यों को सरकार (गवर्नर) से सवाल पूछने, मुद्दे उठाने का अधिकार होता। पर वे पूरक सवाल नही कर सकते थे। बिल पेश नही कर सकते थे। ऐसी लेम-डक असेम्बली को गांधी ने खारिज कर दिया था।
इसके चुनाव होने थे, कई लोग लड़ने को लालायित थे।
गांधी ने कहा- कांग्रेस ये चुनाव नही लड़ेगी।
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अब चितरंजन दास (Chitranjan Das) ने एक पार्टी बनाई, स्वराज पार्टी। इसके दूसरे पिलर थे मोतीलाल नेहरू(Motilal Nehru)। चितरंजन दास के चेले, सुभाषचन्द्र बोस (Subhash Chandra Bose)...
भविष्य में बंगाल के फेमस होने वाले मुख्यमंत्री सुहरावर्दी, बल्लभभाई पटेल (Sardar Vallabhbhai Patel) के बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल(Vitthalbhai Patel) इस पार्टी में आये।सभी चुनाव लड़े, सभासद भी बने। जब भगतसिंह (Bhagat Singh) ने सेंट्रल असेम्बली में बम फेंका, उस वक्त सभापति की चेयर पर विट्ठलभाई पटेल बैठे थे।
उधर बाकी के कांग्रेसी, गांधी के पक्के अनुयायी बने रहे। इसमे मोतीलाल का लड़का भी था।
वो बापू के साथ रहा, बाप के साथ नही।
1925 में चितरंजन दास की मौत के साथ ही, स्वराज पार्टी का केंद्रीय सूत्र टूट गया। मोतीलाल कांग्रेस में लौट आये। सुभाषचन्द्र बोस और कई दूसरे नेता भी...
तो नेताओ के आने जाने , छोड़ने लौटने से, गांधी सदा बेपरवाह रहे। जनता से सीधा कनेक्ट था। गांधी नाम ही काफी था। सुप्रीम लीडर की तरह, आगे पच्चीस साल, गांधी ने कांग्रेस को अपनी मर्जी से चलाया। उसकी रीति नीति तय की - पूर्ण स्वराज्य, धर्मनिरपेक्षता, अहिंसा, भाईचारा..
पर इस दौर में वे कितनी बार अध्यक्ष रहे?
बस, वही एक बार - 1924 बेलगाम में।
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गांधी युग मे गांधी नही, तमाम दूसरी पंक्ति के नेता अध्यक्ष हुए। कई के नाम भी आपको याद न होंगे। 1924 से 1948 तक सरोजिनी नायडू, श्रीनिवास अयंगर, मुख्तार अंसारी, मोतीलाल, जवाहर लाल, वल्लभभाई पटेल, मदनमोहन मालवीय, नेली सेनगुप्ता, राजेन्द्र प्रसाद, सुभाष बोस, अबुल कलाम आजाद, और आचार्य कृपलानी अध्यक्ष रहे। (चित्र देखें)
अध्यक्ष विचार विमर्श से, सर्वसहमति से चुना जाता। सर्वसहमति याने- बापू की अंतिम सहमति। परम्परा बस एक बार टूटी जब सुभाष ने दोबारा अध्यक्ष बनने के लिए चुनाव की नौबत ला दी।
जीत भी गए, मगर टिक न सके।
अध्यक्ष पद एक वर्ष का होता। नेहरू, बल्लभभाई, राजेन्द्र प्रसाद लगातार दूसरे साल भी रिपीट हुए। लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जब सारे नेता गिरफ्तार कर लिए गए, तो अबुल कलाम आजाद जो 1941 के लिए अध्यक्ष चुने गए थे, वे 1945 तक अध्यक्ष बने रहे। सबसे लंबे कार्यकाल का अध्यक्ष, मौलाना आजाद ही रहे।
उसके बाद 1946-47 में जे बी कृपलानी ने कमान सम्हाली। ये सारे अध्यक्ष, ये कांग्रेस की लीडरशिप का पूरा तारामंडल, गांधी ने ही देखा, बढाया और मौके दिए।
कांग्रेस के अध्यक्ष ही नही, भारत का प्रधानमंत्री भी गांधी ने चुना।
बड़ा हल्ला है, गुस्सा है, क्षोभ है, की गांधी ने कांग्रेस की पसन्द सरदार के स्थान पर नेहरू को चुना। गुस्सा क्षोभ मुझे भी है। भला थे कौन नेहरू, कौन थे सरदार।
गांधी को खुद को चुनना था।
जी हां। कौन माई का लाल था कांग्रेस में, या देश मे , जो गांधी को पीएम बनने से रोक लेता। जरूरत क्या थी उन्हें नेहरू या सरदार को चुनने की? शान से खुद शपथ लेते-
"मैं , मोहनदास करमचंद गांधी , सत्यनिष्ठा से शपथ लेता हूँ कि....."
फकीर आदमी शुरुआत में ही पीएम बन जाता। अच्छी पोशाक पहनकर देश विदेश जाता। मेडिसन से वेम्बले तक भारतवंशी, ढोल ताशे लेकर स्वागत करने आते। सोचिये, भारत का कैसा डंका बजता।
काम धाम के लिए तीन डिप्टी पीएम बना लेते, एक जिन्ना, एक नेहरू, एक सरदार। ज्यादा भी बना सकते थे।
अंबेडकर (Dr.Bhim Rao Ambedkar)को "दलित डिप्टी पीएम" बनाना एक बढिया चॉइस होती।
बात मजाक सी लगती है। मगर गम्भीरता से सोचिये, की गांधी खुद ही प्रधानमंत्री क्यो नही बन सकते थे। आप गांधी से सिर्फ त्याग, और दूसरो को पद देने की उम्मीद ही क्यो करते हैं? अगर आप उम्मीद करते हैं, की वे नेहरू की जगह सरदार का चयन करें।
क्यो करें?? क्योकि वे संत थे? महात्मा थे??
अजी, या तो वे सरदार का हक मारने वाले कुटिल राजनेता थे, या या अपनी हकदारी को त्याग कर, किसी युवा, योग्य प्रशासक को गद्दी सौंप देने वाला संत निस्वार्थ संत।
दोनों में कोई एक ही बात तय कीजिए।
लेकिन एक मजेदार कयास यह हो सकता है, कि वे खुद का चयन करते तो, प्रधानमंत्री के बतौर गांधी कैसे प्रशासक साबित होते,
यह कोई नही बता सकता। मगर एक चीज तो तय थी। प्राइमिनिस्टर गांधी को कोई गोडसे..
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